मन बहुत ही विशाल है बहुत ही विशाल. पतंजलि ने बताया की चित की वृतियों का निरोध ही योग है. पतंजलि योग सूत्र में विभिन्न समाधियों का वर्णन है. योग के अभ्यास के माध्यम से मन जैसे जैसे नियंत्रण में आने लगता है तो तब पैदा हुई मन की विभिन्न स्थितियों को हम समाधि कहते है. पतंजलि ने समाधि का नाम दिया है. जैसे मन का कुछ भाग नियंत्रण में आया तो एक तरह की समाधि हुई. फिर और उसके आगे का भाग नियंत्रण में आया तो एक अन्य तरह की समाधि हुई. इस तरीके से साधक मन की बाड़ को तोड़ता हुआ विभिन्न प्रकार की समाधियों का अनुभव करता हुआ अध्यात्म की यात्रा में खुद के अंदर की ओर आगे बढ़ता है.
पांच तरह की चित की वृतियों के माध्यम से मन भागता है. मन की एक उपरी सतह है जिसके कारण व्यक्ति सुने हुए और देखे हुए प्रलोभन रूपी सांसारिक सुखो की ओर भागता है. यानि कि बाहरी सुखों की ओर मन भागता है. सुनी हुई बातों की ओर. जो मन में बाहरी विचार घूमते रहते है उनमे मन भागता है. यह मन की त्रुटि है या यह कह सकते है कि मन की यह एक कार्य शैली है कि किसी की भी बात सुन कर हमारा मन क्षणिक सुख के लिए ताने बाने बुनने लगता है. मन के अंदर अपने विचार तो है ही परन्तु बाहरी विचार मन पर अत्यधिक प्रभाव डालते है.
अगर इस समस्या का समाधान कर लिया जाये तो बच्चों को बिगड़ने से बचाया जा सकता है. समाज में बिगड़े हुए बच्चों को संवारा जा सकता है. इसके लिए मन की टेक्नोलॉजी को समझना होगा. हमारे जीवन का ज्यादातर हिस्सा तो बाहरी विचारो की भेट ही चढ़ जाता है. क्यूंकि सबसे ज्यादा हम अपने ही परिवेश से प्रभावित होते है. यह सब ऑटोमेटिकली चल रहा है. क्यूंकि मन बना ही इस तरह हुआ है. मन की इसी कमजोरी की वजह से ही आंतकवाद है. क्यूंकि बाहरी विचारो का मन पर अत्यधिक असर पड़ता है. नशे की लत युवाओं में इसी वजह से पैदा होती है. लुभावनी बाते जैसे सामने आई मन उसी समय भागने लगा.
पतंजलि ने समाधान बताया है. मन की इस समस्या का समाधान बताया है. एक शब्द आता है पतंजलि योग सूत्र में “वशीकार वैराग्य”.. पतंजलि योग सूत्र संख्या 15.
देखे और सुने हुए विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित की जो वशीकार नामक अवस्था है वह वशीकार वैराग्य है.
इसका मतलब यह है कि मन की उपरी सतह जब वश में आती शुरू हो जाती है तब की स्थिति. उपरी सतह मतलब मन का वो भाग जिसमे बाहरी विचार अपना जोर दिखा सकते है. वशीकार वैराग्य जब घटित हो जाता है तो बाहरी लुभावने विचार अपना असर दिखाना बंद कर देते है. काफी हद तक चुपी छा जाती है. जब वशीकार वैराग्य तक व्यकित पहुच जायेगा तब कोई आकर किसी लुभावनी विषय/वस्तु के बारे में लुभाने की कौशिश करेगा तो मन के अंदर उस विषय/वस्तु के प्रति प्रतिउत्तर नहीं पैदा होगा.
यह कमाल की जीत होगी क्यूंकि आमतौर पर व्यक्ति बाहरी विचारो में अंदर ही जीता है. और इस स्थिति से बाहर निकलना वशीकार वैराग्य कहलाता है. बाहरी भोगो के प्रति तृष्णा का मिट जाना. बड़े कमाल का अनुभव होता है. इसलिए ही महर्षि पतंजलि ने इस स्थिति को काबू पाने को सम्प्रज्ञात समाधि का नाम दिया. इस समाधि में चित वृति का समाधान हो जाता है और चित की वृतियां बाहर भागने से रुक जाती है.
लेकिन यह जो हो रहा है मन की बाहरी सतह पर हो रहा है. क्यूंकि अभी बाहरी वृतियां ही रुकी है. अंदर जो था वो वैसा ही है जैसा वो था. क्यूंकि चित की वृतियां अंदर अवचेतन मन में बीज के रूप में विद्यमान रहती है.
तो हम बात कर रहे थे सम्प्रज्ञात समाधि की. यह सम्प्रज्ञात समाधि भी एक क्रम से सिद्ध होती है. जो यह चित की वृतियां है इनका सम्बन्ध वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता है. इन चारो को पहले हम समझेगे कि इनका मतलब क्या है? फिर महर्षि पतंजलि ने इन चारो का निर्मूलन करने के लिए क्या कहा उसके बारे में बात करेगे.
बाहर से जो ज्ञान हमें मिलता है या फिर हमारे अनुभव ने आता है वो हमारे मन में जमा होता रहता है और समय आने पर यह ज्ञान, यह अनुभव परिस्थिति के अनुसार जागृत हो जाता है. इसे वितर्क स्थिति कहते है. यहाँ जो जमा हुआ वो बाहर से मिला हुआ है इस बात को याद रखना है. जब ध्यान साधना से मन अपने आप ही बाहरी विषय वस्तुओं का निरोध करने लगता है तो मन की अवस्था को सवितर्क समाधि कहते है. इसे सविकल्प समाधि भी कहते है.
अब बात को थोड़ा ओर गहराई से समझना होगा. सविकल्प समाधि. यहाँ मन ने बहिये पदार्थो को ग्राह तो करना बंद कर दिया परन्तु उन पदार्थो से सम्बंधित शब्द, अर्थ और ज्ञान अभी भी मन के अंदर है. यानि कि जिन बाहरी पदार्थो के पीछे मन ने भागना बंद किया है उनका विकल्प अभी भी मोजूद है. अवस्था यह भी सम्प्रज्ञात समाधि की ही है परन्तु अभी यात्रा शुरू हुई है.
जब मन सम्बंधित पदार्थो के शब्द और उनके अर्थ और उनके ज्ञान का भी निरोध करने लगता है तो इसे निविर्तर्क समाधि या फिर निर्विकल्प समाधि कहते है. इसका मतलब यह हुआ की अब केवल मन बाहरी पदार्थो से नहीं छुटा परन्तु बाहरी पदार्थो के जो विकल्प थे वो भी समाप्त हो गए.
इस तरह से दो प्रकार की समाधियों को हमने समझा. सविकल्प समाधि और निर्विकल्प समाधि.
अब और आगे बढ़ते है अंदर की ओर.
अभी मन की बाहरी सतह पर काम किया अब थोड़ा अंदर की बात करते है. क्यूंकि सविकल्प समाधि और निर्विकल्प समाधि के बाद बाहर की लुभावनी बातों से तो पीछा छुट जाता है और मन भागना बंद कर देता है. चित की बाहरी वृतियां शांत हो जाती है. बाहर से संगृहीत विचारों का क्रम बंद हो जाता है परन्तु स्वयं के अंदर अंदर विचार चलते रहते है क्यूंकि अभी बाहर से आना जाना बंद हुआ है. अब निर्णय भीतर से आने लगता है. विचार इसी अवस्था को कहते है. पहले जो बात हो रही थी वो वो तर्क-वितर्क की हो रही थी. अब हम मन की उस अवस्था की बात कर रहे है जहा विचार पैदा हो रहे है अब यह आपके अपने विचार है पहले जो तर्क वितर्क थे वो बाहरी थे.
अब मन की एक आन्तरिक लेयर की ओर बढ़ेगे जहाँ विचार पैदा हो रहे है. अब क्या होता है कि जब बाहर के विचार समस्यां करनी बंद कर देते है तो अंदर के विचार आकर खड़े हो जाते है. हमें ध्यान के द्वारा इस अवस्था को भी पार करना होता है.
पहले निर्णय बाहर से आ रहा था उस पर हमने जीत हासिल कर ली. अब निर्णय भीतर से आ रहा है. जिसे विचार कहते है जैसा कि मैंने बताया आपको. अब ध्यान की शक्ति से मन के इस भाग को भी कण्ट्रोल में लेना है ताकि वो विचारो का भी निरोध करने की स्थिति में आ सके. विचार भी एक तरह से पदार्थों के सूक्ष्म रूप ही होते है. तो ध्यान की यात्रा में आगे बढ़ते हुए मन जब विचारों का जब निरोध कर देता है. तो उस स्थिति को सविचार समाधि कहते है. अब मन में अथाह शांति उठने लगेगी. लेकिन जैसे सविकल्प समाधि में था वैसे ही यहाँ भी होता है कि विचारो का निरोध तो हो जाता है परन्तु उनसे सम्बंधित शब्दों का, उनके अर्थ और उन शब्दों का ज्ञान अभी भी रहता है. विचारो का तो निरोध तो हो जाता है परन्तु शब्दों का और उनके अर्थो का अस्तित्व बना रहता है. जब ध्यान के द्वारा हम विचारों के साथ साथ विचारो से सम्बंधित शब्दों का और उनके अर्थो का और उनसे जुड़े हर प्रकार के ज्ञान का भी निरोध कर देते है तो इस समाधि का नाम होता है निर्विचार समाधि. यह वो स्थिति है जहाँ विचार तो उठते है और इसके साथ साथ सम्बंधित शब्दों का और उनके अर्थो का और उनसे जुड़े हर प्रकार के ज्ञान का भी उन्मूलन हो जाता है. यहाँ दूर दूर तक किसी प्रकार की कोई भी हलचल नहीं होती मन में. विचारो का कर्म सर्वथा रुक जाता है. जब विचारो का कर्म रुक जाता है तो साधक को आनंद की अनुभूति होने लगती है. यह आनंद भीतर के अनुभव के कारण आता है.
यह वो आनंद होता है जिसकी आपने कई बार