ध्यान साधना खुद को जानने के लिए और ईश्वर को समझने के लिए की जाती है. हमारी सबसे बड़ी अड़चन हमारा खुद का मन है. साधना में हम अपने मन को ही साध रहे होते है. मन को साधते साधते बहुत सारे विकार मन में पैदा होने लगते है. मन के इन विकारों का असर हमारे शरीर पर हमारे मन पर और हमारी अध्यात्मिक यात्रा पर होने लगता है.
ध्यान करते करते कई बार अचानक शरीर के किसी अंग में अचानक कम्पन होने लगता है. कई बार यह अंग जोर से फड़फाड़ने भी लगते है. जिस से कई बार साधक विचित्र रूप से डर जाता है.
मन को काबू में करना इतना आसान कार्य नहीं है. कई बार साधन करते करते मन और भी अधिक विक्षिप्त होने लगता है. हालंकि यह लक्षण हर साधक में नहीं दिखते. इसलिए किसी भी प्रकार की साधना में एक अच्छे गुरु का होना बहुत जरुरी है. इसलिए साधक को मालूम होना चाहिए की किस स्थिति के उसे क्या करना है.
कई बार स्वास-प्रवास तेज़ होने लगता है. सांसे बहुत ही तेज़ी से चलने लगती है. प्राण बड़ी तेज़ी से अंदर बाहर होने लगता है. ऐसे भी भी साधक बहुत डर जाता है. लेकिन यदि पहले से ही इन सब बातों के बारे में मालूम हो साधन में आसानी होती है.
कई बार कोई सांसारिक ईच्छा पूर्ण न होने के कारण मन में एक अलग ही प्रकार की उदासी आ जाती है. साधक के न चाहते हुए भी यह उदासी बनी रहती है और किसी भी सांसारिक मनोरंजन से यह उदासी दूर नहीं होती.
इस तरह के विघ्नों से यह पता चलता है कि हम अपनी साधना में आगे तो बढ़ रहे है लेकिन हमें अपने साधन को बदलने की आवश्यकता है और अपनी साधना में नए साधन जोड़ने की आवश्यकता है.
अब बात आती है कि इस प्रकार की समस्या को दूर कैसे किया जाये. अकसर हम इन समस्यायों के लिए एलोपैथी या अन्य दवाइयों का सहारा लेने लगते है|
ऐसे में हमें योग गुरु की मदद से समस्या का समाधान ढूँढना चाहिए.
यह समस्या जितनी विकराल दिखती है इसका समाधान उतना ही आसान है. इसका समाधान पतंजलि योग सूत्र में दिया गया है.
पतंजलि इस समस्या के निदान के लिए प्रणव का सहारा लेने की सलाह देते है. ॐ का उच्चारण करने से इन सभी समस्याओं से निजात मिलने लगता है. एक ही तत्व का अभ्यास करना चाहिए.
जैसे जैसे ॐ का उच्चारण साधक करता है वैसे वैसे उसके मन का विचलन घटता चला जाता है. ॐ शरीर में एक नए तरह का विधुत प्रवाह होने लगता है. ॐ के उच्चारण से पैदा हुआ विधुत प्रवाह ही इस समस्या से बहार निकाल कर आता है.