परमहंस संत
आपने यह शब्द अपने जीवन में बहुत बार सुना होगा. खासतौर पर भारत में विभिन्न समुदायों के गुरुओं के नाम के आगे “परमहंस” शब्द का प्रयोग किया जाता है. क्या आपने कभी सोचा है कि कौन होते है परमहंस संत? क्या परमहंस होना एक उपाधि है. अगर उपाधि है तो कौन देता है यह उपाधि?
इस बात का उल्लेख भी हमारे ग्रंथो में दिया गया है. विशेषतौर पर हमारे मूल ग्रन्थ उपनिषदों में. सबसे पहली बात तो परमहंस संत विरले ही होते है – ऐसा ब्रह्माबिंदु उपनिषद में लिखा हुआ है. जब महामुनि नारद ब्रह्मा से परमहंस संतो के बारे के पूछते है – कि परमहंस संत कैसे होते है?
ब्रह्मा और महर्षि नारद
ब्रह्मा उतर देते है कि – परमहंस सन्यासियों का मार्ग इस लोक में अंत्यंत दुर्लभ है. ऐसे परमहंस बहुत नहीं है. एकाद ही है. एकाद ही परमहंस सन्यासी होता है.
फिर नारद पूछते है – परमहंस सन्यासी कैसे इस संसार में विचरता है?
ब्रह्मा उतर देते है – वो परमहंस सन्यासी सदा ही कूटस्थ भाव में स्थित होता है. इस परमहंस सन्यासी को वेद पुरुष भी कहते है. ऐसे परमहंस सन्यासी के चित में ईश्वर के सिवा और कुछ भी नहीं होता. इसलिए स्वयं ईश्वर परमहंस योगी के चित में विराजमान रहते है.
यही वजह थी कि भारत में ऐसे योगियों ने तरह तरह के चमत्कार भी किये. लेकिन परमहंस युहीं कोई सन्यासी किसी के कहने से नहीं हो जाता. उसके लिए सबसे पहले अपने मन से लड़ते हुए अपने मन के पार जाना होता है और उसके बाद उस मन को छोड़ना होता है.
कर्मकांड और सन्यासी
वो सन्यासी तब किसी भी कर्मकांड में न तो विश्वास रखता है और न ही किसी कर्मकांड का हिस्सा बनता है. परमहंस सन्यासी का न तो कोई मित्र होता है और न ही कोई शत्रु. सिकंदर बादशाह की भी मुलाकात एक ऐसे ही सन्यासी से हुई थी. उस सन्यासी में सिकंदर के व्यक्तित्व को हिला कर रख दिया था. सिकंदर की मौजूदगी से ही लोग खौफ में आ जाते थे. लेकिन उस सन्यासी के तो आसपास दूर दूर तक डर का नामोनिशान नहीं था. सिकंदर हैरान था उस सन्यासी के आचरण से. परन्तु यह बात सिकंदर के समझ आने वाली नहीं थी.
परमहंस होना एक यात्रा है
परमहंस होना एक यात्रा है एक मानव के ईश्वर तक पह्चुने की. परमहंस होने से पहले सन्यासी होना पड़ता है. सन्यासी होने से पहले कर्मयोगी होना होता है. यात्रा का रास्ता कर्मयोग से ही शुरू होता है. ध्यान साधना और फिर विभिन्न प्रकार की समाधियों के पार जाता हुआ योगी परमहंस होने तक पहुचता है. उस महापुरुष का चित हरदम मुक्त रहता है. यानि सामान्य मनुष्य के चित की तरह उस सन्यासी का मन उड़ता नहीं है. परमहंस सन्यासी के मन में हरदम विचार नहीं उठते है. उनका मन शांत पानी की तरह होता है. अगर कोई भाव रहता है तो केवल और केवल ईश्वर का ही भाव रहता है. एकहि भाव. न कोई दण्ड (एक प्रकार की लकड़ी) न कोई कमण्डल न कोई विशेष वेश. क्यूंकि मन होता ही नहीं तो कोई भी विषयवस्तु उनके व्यक्तित्व का हिस्सा हो ही नहीं सकती.
वह सन्यासी छ: प्रकार के कर्मो से रहित होता है. वह सन्यासी सर्दी, गर्मी, सुख, दुःख, मान अरु अपमान इन छ: कर्मो से दूर होता है. उस सन्यासी का शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध पांच तन्मात्राओं से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं होता.