समाधि शब्द
समाधि शब्द आपने कई बार सुना होगा. हम सुनते आये है प्राचीन ऋषि समाधि अवस्था में चले जाते थे. आज भी उच्च कोटि के साधक समाधिस्थ हो जाते है. आज हम आसान भाषा में यह समझेगे कि यह समाधि वास्तव में है क्या?
ध्यान एक घटना है
समाधि ध्यान के बाद की अवस्था है और ध्यान एक घटना है. जोकि एक तरह से मन के हटने के बाद घटित होती है. ध्यान से पहले प्रत्याहार होता है. प्रत्याहार को हमें समझना होगा. हम लगातार अपनी चेतना को अपनी पांच इन्दिर्यों के माध्यम से खोते चले जा रहे है. हमारा माइंड ही एक तरह का पदार्थ है जो हमारी चेतना को संसार में उलझाये रखने में सक्षम है. हमारा मन हमें हमारी चेतना को नहीं समझने देता. हमारा मन हमें कुछ क्षणों के लिए भी नहीं ठहरने देता जिस से कि हम खुद के होने को समझ सके. यानि हम चेतन और अचेतन में फर्क समझ सके.
इसलिए खुद को समझने की प्रक्रिया में अगर कोई हमारा शत्रु है तो वो हमारा मन ही है. इसलिए साधना में हमारी पहली लड़ाई हमारे खुद के मन से ही होती है. ध्यान से पहले हमें अपने मन को अपनी पाच इन्दिर्यों से अलग करना होता है. मन को अपनी इन्द्रियों से हटाना ही प्रत्याहार है.
मन को शुद्ध करना होता है
लेकिन इसके लिए सबसे पहले हमें अपने मन को शुद्ध करना होता है. मन को शुद्ध करने का मतलब होता है कि मन को कामना रहित करना. मन तब तक अशुद्ध होता है जब तक उसमे कामनाएं होती है. शुद्ध मन से ही ध्यान की और बढ़ा जा सकता है. अशुद्ध मन हमें हमेशा संसार को और ही बनाये रखता है. अगर हमारी सोच केवल संसार है तो समझ लीजिये कि हमारा मन अशुद्ध है.
समाधि में मन नहीं होता
समाधि में मन नहीं होता. इसलिए सही मायने में हम समाधि को शब्दों में बयां नहीं कर सकते. समाधि अपने ही मन के परे की एक स्थिति है.
प्रत्याहार के बाद एक ही विचार की धारणा की जाती है. एक ही विचार जब लम्बे समय तक चलता है तो एक समय ऐसा आता है जब ध्यान घटता है. ध्यान में समय का आभास भी नहीं रहता. कब ध्यान करने बैठे और कब तक वो ध्यान चला इस बात का पता ही नहीं चल पाता. ध्यान जब लम्बे समय तक घटने लगता है तो साधक समाधि में जाने लगता है.
समाधि की भी कई अवस्थाएं होती है
समाधि की भी कई अवस्थाएं होती है. समाधि में शुरू के मन से परे के आभास होते है. परन्तु वो आभास साधक मन से जुड़ कर ही सोचने लगता है. फिर साधक खुद के होने के अनुभव को पाने लगता है. जब खुद केहोने के अनुभव को पा लेता है तो उसे खुद को कैसे छोड़ना है यह बात समझ आ जाती है.
इस तरह से एक आवरण से दुसरे आवरण को तोड़ता हुआ साधक परम विराम पर पंहुच जाता है जोकि समाधि की अंतिम अवस्था है. जिसे हम निर्वाण कह सकते है, मुक्ति कह सकते है.